Natasha

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राजा की रानी

राजलक्ष्मी ने कहा, “इतना क्या देख रहे हो?”


“तुमको देख रहा हूँ।”

“नयी हूँ?”

“ऐसा ही तो लग रहा है।”

“और मुझे क्या लग रहा है, जानते हो?”

“नहीं।”

“इच्छा हो रही है कि रतन के चिलम तैयार कर लाने के पहले ही अपने दोनों हाथ तुम्हारे गले में डाल दूँ। डाल देने पर क्या करोगे बताओ?” कहकर हँस पड़ी। बोली, “उठाकर बाहर तो नहीं फेंक दोगे?”

मैं भी हँसी न रोक सका। कहा, “डालकर देख ही लो न! पर इतनी हँसी- कहीं भाँग तो नहीं खा ली है?”

सीढ़ियों पर पैरों की आवाज सुनाई दी। बुद्धिमान रतन जरा जोर से पैर पटकता हुआ चढ़ रहा था। राजलक्ष्मी ने हँसी दबाकर धीरे से कहा, “पहले रतन को चले जाने दो, फिर तुम्हें बताऊँगी कि भाँग खाई है या और कुछ खाया है।” पर कहते-कहते अचानक उसका गला भारी हो गया। कहा, “इस अनजान जगह में चार-पाँच दिन को मुझे अकेला छोड़कर तुम पूँटू की शादी कराने गये थे? मालूम है, ये रात-दिन मेरे किस तरह कटे हैं?”

“मुझे क्या मालूम कि तुम अचानक आ जाओगी?”

“हाँ जी हाँ, अचानक तो कहोगे ही। तुम सब जानते थे। सिर्फ मुझे तंग करने के लिए ही चले गये थे।”

रतन ने आकर हुक्का दिया, बोला, “बात तय हुई है माँ, बाबू का प्रसाद पाऊँगा। रसोइए से खाना लाने के लिए कह दूँ? रात के बारह बज गये हैं।”

बारह सुनकर राजलक्ष्मी व्यस्त हो गयी, “रसोइए से नहीं होगा, मैं खुद जाती हूँ। तुम मेरे सोने के कमरे में थोड़ी-सी जगह कर दो।”

खाने के लिए बैठते वक्त मुझे गंगामाटी के अन्तिम दिनों की बात याद आ गयी। तब यही रसोइया और यही रतन मेरे खाने की देख-रेख करते थे। राजलक्ष्मी को मेरी खबर लेने को वक्त नहीं मिलता था। पर आज इन लोगों से नहीं होगा- रसोई घर में खुद जाना होगा! पर यह उसकी प्रकृति है, वह थी विकृति। समझ गया कि कारण कुछ भी हो, किन्तु उसने अपने को फिर पा लिया है।

खाना खत्म होने पर राजलक्ष्मी ने पूछा, “पूँटू की शादी कैसी हुई?”

“ऑंखों से नहीं देखी पर कानों से सुनी है, अच्छी तरह हुई।”

“ऑंखों से नहीं देखी? इतने दिनों फिर कहाँ थे?”

विवाह की सारी घटना खोलकर सुनायी। सुनकर क्षणभर के लिए गाल पर हाथ रक्खे हुए उसने कहा, “तुमने तो अवाक् कर दिया! आने के पहले पूँटू को कुछ उपहार देकर नहीं आये?”

“मेरी तरफ से वह तुम दे देना।”

राजलक्ष्मी ने कहा, “तुम्हारी तरफ से क्यों, अपनी तरफ से ही लड़की को कुछ भेज दूँगी। पर थे कहाँ, यह तो बताया ही नहीं?”

कहा, “मुरारीपुर के बाबाओं के आश्रम की याद है?”

राजलक्ष्मी ने कहा, “है क्यों नहीं। वैष्णवियाँ वहीं से तो मुहल्ले-मुहल्ले में भीख माँगने आती थीं। बचपन की बातें मुझे खूब याद हैं।”

“वहीं था।”

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